मोदी को चौथी बार भी तो हरा नहीं पाए राहुल गांधी…
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केंद्र की राजनीति में राहुल गांधी नरेंद्र मोदी से सीनियर हैं। उनको केंद्र की राजनीति करते बीस साल हो गए हैं।जबकि नरेंदर मोदी को तो दस साल ही हुए हैं।नरेंद्र मोदी की तुलना राहुल गांधी के पास केंद्र की राजनीति का दोगुना अनुभव है।इस हिसाब से तो केंद्र की राजनीति में राहुल गाधी को नरेंद्र मोदी से ज्याादा कुशल होना चाहिए, ज्यादा चुनाव जिताने वनाला नेता होना चाहिए लेकिन वह कांग्रेस के सबसे ज्यादा चुनाव हारने वाले नेता हैं।खासकर केंद्र की राजनीति में तो पीएम मोदी ने जितनी जलदी सबकुछ सीखा, वह राहुल गांधी सीख नहीं पाए हैं।
कांग्रेस व राहुल गांधी का सपना है नरेद्र मोदी को लोकसभा चुनाव में हराना ।वह तीन लाकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को हरा नहीं पाए हैं।तीससे लोकसभा चुनाव में जाकर वह भाजपा को बहुमत से रोक पाए हं लेकिन सरकार बनाने से रोक नही पाए हंैं। मोदी की तीसरी बार एनडीए की सरकार बनना उनकी दूरदर्शितता का परिणाम है। दो बार वह बहुमत से सरकारब बनने पर भी एऩडीए को बनाए रखा.दूसरा नेता होता तो सोचता क्या जरूरत है, हमं जो जनता बहुमत दे रही है।तीसरी बार भाजपा को बहुुमत नहीं मिला तो यही एनडीए नरेद्र मोदी के काम आया।अपनी दूरदर्शिता के कारण नरेंद्र मोदी पार्टी का राज्यो में विस्तार कर रहे हैं तथा केंद्र की राजनीति में भी अपनी स्थिति को मजबूत बनाए हुए हैं।
राहुल गाधी में यह दूरदर्शिता नहीं है, इसलिए वह राज्यों में कांग्रेस को मजबूत नहीं कर पा रहे हैं और केंद्र की राजनीति में भी अपनी स्थिति को मजबूत नहीं कर पाए हैं। राहुल गांधी दूरदर्शी होते तो वह नीतीश कुमार चंद्रबालू नायडू के महत्व को समझ जाते। यह दोनों इंडी गठबधन में होते तो क्या मोदी की सरकार तीसरी बार बन पाती। पीएम मोदी की तीसरी बार सरकार बनी है तो चंद्रबाबू नायडू व नीतीश कुमार के कारण। राहुल गांधी तीसरी बार मोदी को हराने के लिए नीतीश कुमार व चंद्रबाबू नायडू का उपयोग नहीं कर सके। इसलिए तीसरी बार भी उनको हार का सामना करना पड़ा और चौथी बार भी हार का सामना करना पड़ा।
तीसरी बार हार का सामना लोकसभा चुनाव में करना पड़ा तो चौथी बार हार का सामना लोकसभा स्पीकर के चुनाव मे करना पड़ा। राहुली गांधी तो नीतीश कुमार व चंद्रबाबू नायडू का महत्व तब समझ में आया जब मोदी खेमें में चले गए थे। नीतीश कुमार तो उनके साथ ही थे, उनको चंद्रबाबू नायडू को अपने खेमे चुनाव के पहले ले आना था। यही नहीं कर सके राहुल गांधी . ऐसा सोच पाते राहुल गांधी तो बिहार,आंंध्र में कांग्रेस की साझा सरकार होती और दिल्ली में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार होती।राहुल गांधी के पास पीएम मोदी को हराने का एक अचछा मौका लोकसभा चुनाव में स्पीकर का चुनाव भी था।यहां भी राहुल गांधी को हार का सामना करना पड़ा। इसके लिए वह खुद दोषी है।वह एनडीए को कमजोर गठबंधन कहते रहे, एनडीए की सरकार को कमजोर कहते रहे लेकिन अपने गठबंधन को मजबूत बनाने व दिखाने में राहुल गांधी सफल नहीं हो सके।वह 99 सीटें जीतने पर ही मान बैठे के विपक्ष के सारे दल उनकी बात मानने के लिए मजबूर हैं। कांग्रेस जो फैसला करेगी, उसे सभी दल मानेंगे ही।
के,सुरेश को स्पीकर चुनाव के लिए प्रत्याशी बनाने का फैसला खुद ही कर लिया. गठबंधन के सीनियर नेताओं से बात नहीं की। इसी का खामियाजा लोकसभा चुनाव में स्पीकर चुनाव में हार के रूप में भुगतना पड़ा और इंडी गठबंधन के एकजुट व मजबूत होने की पोल भी खुल गई। संसद के भीतर भी राहुल गांधी विपक्ष को एकजुट नहीं कर पाए, आपातकाल के निंदा प्रस्ताव पर कांग्रेस का रुख कुछ था तो सपा का रुख कुछ और था। वोटिंग पर कांग्रेस का रुख कुछ था तो टीएमसी का रुख कुछ और था।। नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद अब यह राहुल गांधी की जिम्मेदारी है कि वह विपक्ष को संसद के भीतर व बाहर एकजुट रखे।