कोरबा। मेडिकल कॉलेज अस्पताल में स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह अव्यवस्था के दलदल में फंसी हुई है।
एमएस डॉ. गोपाल कंवर के कार्यकाल में अस्पताल में ऐसे-ऐसे प्रयोग हो रहे हैं जिनका खामियाज़ा रोज़ाना सैकड़ों मरीज भुगत रहे हैं। दवाई वितरण जैसे संवेदनशील काम को भी स्थायी कर्मचारियों की जगह कलेक्टर दर पर रखे गए अस्थायी कर्मियों के भरोसे छोड़ दिया गया है। सूत्र बताते हैं कि पूरे दवा वितरण विभाग का चार्ज भी एक संविदा कर्मचारी के पास है, जबकि नियमित फार्मासिस्ट एमएस के निर्देशों के तहत अन्य कामों में उलझा दिए गए हैं।
जिला अस्पताल के समय से ही यहां फार्मासिस्ट पदस्थ हैं जो मरीजों को दी जाने वाली दवाओं की जिम्मेदारी संभालते थे। मगर अब नियमित फार्मासिस्ट सुषमा सिंह को एमएस ऑफिस में क्लर्क बना दिया गया है, जबकि फार्मासिस्ट एस.के. मित्रा को दवा वितरण की जगह खरीदी-बिक्री का पूरा काम सौंप दिया गया है। यह काम दरअसल स्टोर कीपर के जिम्मे होना चाहिए, लेकिन अस्पताल में स्थायी स्टोर कीपर होने के बावजूद फार्मासिस्ट को ही लगाया गया है।
अस्पताल के कई कर्मचारियों का कहना है कि एमएस गोपाल कंवर केवल “अपनों” को ही महत्व देते हैं। बताया जा रहा है कि कुछ स्टाफ नर्सों को बिना निर्धारित नियम के मनमाने ड्यूटी टाइम का अधिकार दिया गया है। इनमें एक नर्स का नाम लगातार चर्चाओं में है, जिन पर मरीजों की लापरवाही और ड्यूटी से गायब रहने के आरोप कई बार लग चुके हैं। डॉक्टरों और नर्सों की शिकायतों के बावजूद एमएस ने कभी भी कार्रवाई करना उचित नहीं समझा।
डीन डॉ. कमल किशोर सहारे की चुप्पी भी इस पूरे प्रकरण पर सवाल खड़े करती है। अस्पताल के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि एमएस और डीन के बीच गहरी समझदारी के कारण ही कई गड़बड़ियां अनदेखी की जाती हैं। यहां तक कि यह भी चर्चा है कि हर माह दवाओं का एक निजी खर्च नियमित फार्मासिस्ट के ज़रिए एमएस के निर्देश पर “मैनेज” कराया जाता है।
(हालांकि इसकी आधिकारिक पुष्टि फिलहाल नहीं हुई है, पर कर्मचारियों के बीच यह चर्चा आम है।)
यह पहली बार नहीं है जब अस्पताल के भीतर घोटाले और मनमानी के आरोप उठे हों। पहले भी अवैध टेंडर और अनियमित खरीदी को लेकर सवाल उठे, लेकिन कार्रवाई के नाम पर अब तक फाइलें ही घूमती रहीं।
स्थिति इतनी गंभीर है कि मेडिकल कॉलेज अस्पताल सह जिला अस्पताल में फार्मासिस्ट पदस्थ होने के बावजूद दवाई वितरण का पूरा काम अस्थायी कर्मचारियों के भरोसे है।
स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर किसी मरीज को गलत दवा दे दी जाती है तो उसकी जवाबदेही कौन तय करेगा?
संविदा कर्मचारियों पर न तो जवाबदेही होती है और न ही किसी स्थायी अधिकारी की सीधी निगरानी।
स्वास्थ्य विभाग की यह लापरवाही सीधा संकेत देती है कि अस्पताल प्रशासन अब मरीजों की नहीं, अपनी ‘सेटिंग सिस्टम’ की चिंता कर रहा है।
दवा वितरण जैसे संवेदनशील विभाग में स्थायी प्रभारी का न होना न केवल नियमों की अनदेखी है बल्कि मरीजों की जिंदगी से सीधा खिलवाड़ भी है।

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